Friday, June 22, 2007

देहधर्म

कुतिया पीछे घूम ''। परभतिया की साडी खोलते हुए नरेस ने उसे चौकी पर पटक दिया। नंगी परभतिया बेमन से अगाडे के बल चौकी पर पलट गई। वो पीछे से उसके भीतर घुसने की कोशिश करने लगा। सीने के बल लेटी परभतिया के दोंनो उभार चौकी की कठोर लकडी से दबे हुए थे। सिसकारी निकली मगर उसने दबा ली, बिटुआ जाग जाएगा। छाती चूस चूस के बेहाल हो गया तब कहीं जाकर नींद आई। दूध नहीं है कमबख्‍त सीना फ‍िर भी उठा जा रहा है। भगवान जाने कोई बीमारी हो गई लगती है। ''साली रंडी ... पिछाडा भी खराब हो गया है , घुसेडो तो ऐसे घुसता है जैसे सुरंग में...चल आगे''। नरेस ने उसके पिछाडे पर भरपूर हाथ मारा। दर्द बर्दाश्‍त करते हुए उसने अपने सामने का हिस्‍सा उसके सामने परोस दिया। वो फ‍िर शुरु हो गया। झटके पर झटके लग रहे थे मगर वो खामोश थी। आदत पड गई थी। बिटुआ के जनम से पहिले से यह सब चल रहा है। कभी आगे तो कभी पीछे। ''....चल उठ। खा खा के सांड होती जा रही है मगर देह में कुछ नहीं है जिधर हाथ लगाओ लगता है मांस उखडकर हाथ में आ जाएगा''। नरेस अब थक चुका था चूल्‍हे के पास पहुंचकर बीडी सुलगाने लगा। '' खाना लगा दे ... ''
बदन

पर साडी डाल के परभतिया चूल्‍हे के पास जा पहुंची। आटा गूंथा रखा था। सब्‍जी बन चुकी थी बस रोटी सेंकनी बाकी थी। आटे की लोई हाथ्‍ा से थपथपा कर उसने तवे पर डाल दी। चिमटा हाथ्‍ा में था। रोटी पलटी और वापस टोकरी में डाल दी। लोहे का चिमटा पूरी रफ्तार के साथ चूल्‍हे मे चल रहा था। रोटिया लगातार बनती जा रही थीं। नरेस हाथ्‍ा मुंह धोकर वापस आ चुका था। थाली में खाना सजाए परभतिया उसके सामने पहुंची। नरेस खा रहा था और वो हमेशा की तरह उसे पंखा झल रही थी।
वो

नरेस की बीबी नहीं थी। उसे नरेस से इश्‍क था। भागकर आई थी अपने घर से। तब नरेस भी ऐसा नहीं था। बिल्‍कुल छैला था। शहर में रहके आया था। सिगरेट पीता था, धुंवे के खूबसूरत छल्‍ले निकालता था। वो उस पर आशिक थी। खैर पहले वो भी परभतिया नहीं थी। उसका नाम प्रभा था। बापू ने बडे चाव से ये नाम रखा था। बहुत सुंदर तो नहीं थी मगर नैन नक्‍श तीखे थे। नरेस कहता था ऐसी लडकियों को शहर में '' बिलैक ब्‍यूटी'' कहते हैं। नरेस के साथ भागी तो सोचा था शहर में रहेगी। मगर नरेस वापस शहर नहीं गया। कहता था, ''वहां क्‍या रखा है। सडक के किनारे गुजारे करने से अच्‍छा है कि अपने गांव में दू रोटी खाके पडे रहो''। वो न जाने क्‍या क्‍या सोच रही थी। आधी रात गुजर चुकी थी। आसमान में तारे बिखरे पडे थे। नरेस चौकी पर बेसुध पडा सो रहा था। धोती खुल गई थी। सामने उसकी जान की दुश्‍मन सिकुडा लटक रहा था। वो कभी चड्ढी नहीं पहनता था। करवट बदलते बदलते धोती खुल जाती और वो नंगा हो जाता। हर राज नरेस नंगा होता और वो उसे देखती। एक रात जब वो उसे निहार रही थी, नरेस की आंख खुल गई। खुली धोती देखकर आग बबूला हो गया। पिल पडा लात घूंसों से मार मारके बेहाल कर दिया। '' कुत्‍ती साली मजाक करती है। बहुत देखे का सौक चर्राया है।'' नरेस का वो हिस्‍सा भी उत्‍तेजित हो गया था। '' ले ले'' कहकर उसने सारा का सारा जबरन उसके मुंह में घुसा दिया। वो नहीं भी नहीं कर सकी। गूं गूं करती रही। नरेस पागलों की तरह उसके मुंह के भीतर झटके पर झटका मारता रहा। थोडी देर बाद जब होश आया तब कहीं जाकर उसे मुक्ति मिली। उसने वहीं पर ढेर सारी उल्‍टी कर दी।
सुबह

होने में अभी एक घंटे का समय था। वो उठ गई। बिटुआ को नहलाना था। नरेस के लिए खाना तैयार करना था। एक बार फ‍िर एक के बाद एक गर्मागर्म रोटियां चूल्‍हे से बाहर निकल रहीं थीं। सुईठा धिककर लाल हो चुका था। परभतिया को उसकी गर्माहट अपने हाथ में महसूस हो रही थी। वो कई बार सुईठे से जल चुकी थी। हाथ की खाल कई जगहों पर काली थी। '' खाने का डिब्‍बा दे'' नरेस की आवाज थी। वो साइकिल पर चढकर जाने के लिए तैयार हो चुका था। वो रोज दरवाजे पर खडी होकर उसे जाते देखते थी। साइकिल जब तक आंखों से ओझल न हो जाती देखती रहती। आखिर में नरेस बिल्‍कुल दिखना बंद हो जाता और वो चौकी पर आकर पसर जाती। बिटुआ फ‍िर रो रहा था। उसने फटाक से ब्‍लाउज का एक सिरा उठाया और दूध की सूखी धार उसके मुंह में थमा दी। छाती में हलचलें शुरु हो गईं बिटुआ दूध की खोज में जुटा था और वो कुछ सोच रही थी। अबकि ठीक समय पर माहवारी नहीं हुई। भीतर दरद भी होता है पर नरेस को कौन समझाए। शाम हो गई थी। सूरज जल जलकर थक चुका था। अब वापस लौट रहा था अपने साथ अपनी रोशनी समेट के। उसने लालटेन जला दी। हर शाम को उसका पहला यही काम था। लालटेन जलाकर आंगन में टांग देना। सांझ को रोशनी बहुत जरुरी है। अंधेरे में लक्ष्‍मी माई भला कइसे आ पाएंगीं। साइकिल के पहियों की आवाज थी। नरेस लौट आया। बीडी बदस्‍तूर उसके मुंह में सुलग रही थी। काम कर करके थक जाता है बेचारा , उसे दया आ रही थी ईंट मिट्टी गारा क्‍या नहीं करना पडता। दिन भर खून जलाओ तब कहीं जाकर चार पैसे हाथ में आते हैं। उसने नरेस से कहा था वो भी मजूरी करना चाहती है। मगर नरेस तैयार नहीं हुआ। ठेकेदार साले अव्‍वल नंबर के मादरचो..होते हैं , पहिले काम करो फ‍िर उनको खुश करो तब कहीं जाकर पइसा देते हैं। ज्‍यादा चूं चपड की तो मजूरी गई हाथ से।
''

अरे आ आना क्‍या हुआ रोज नखरे करती है नहीं देना है तो बता दे इसका इंतजाम भी बाहर ही कर लूंगा।'' नरेस उसे चौकी की ओर खींच रहा था। उसने कहा कि अंदर दरद है मगर नरेस बेपरवाह ''अभी ठीक हो जाएगा ले... ''। और एक बार फ‍िर वो अगाडे के बल चौकी पर पडी थी। नरेस पिछले रास्‍ते से उसके अंदर पहुंच चुका था। और फ‍िर रोज की तरह अगला रास्‍ता भी उसे नरेस के हवाले करना पडा। नरेस थककर चूर हो गया। उसने देह में साडी लपेटी और चूल्‍हे की तरफ चल दी। गर्मामर्ग रोटियां बाहर आने लगीं। चिमटे से कभी रोटी अलग तो कभी पलट। चिमटा लाल था उसके हाथ करीब करीब जल रहे थे मगर उसने चिमटा नहीं छोडा। आंखों से गिरे आंसू बार बार आटे में गिर रहे थे। नरेस खाना खाकर हमेशा की तरह चौकी पर पसरा हुआ था।धोती खुल गई थी।
परभतिया का पोर पोर दर्द में डूबा था। आज नरेस उसके साथ ज्‍यादा बेदर्दी के साथ पेश आया। अंदर से खून तक निकल गया। नरेस ने कल अस्‍पताल चलने की बात कही है

, दिखाना जरुरी है। मैं भी चलूं टिफ‍िन देते हुए उसने नरेस से पूछा था। कहां। अस्‍पताल। रात में कहे तो थे कि कल ले चलेंगे। हां मगर ठेकेदार की गाली कौन सुनेगा बाद में चलेंगे। तू काहे डाक्‍टरन के चक्‍कर में पडती है कुछ नहीं हुआ। सांझ को तेरे लिए मुसम्‍मी का रस लाऊंगा पी लेना ताकत आ जाएगी। नरेस चला गया। वो उसे देखती रही। तब तक जब तक साइकिल ओझल नहीं हो गई। बिटुआ का मुंह अपनी छाती में देकर वो चौकी पर सो गई। अम्‍मा कहतीं थीं कि इस जगह से कभी गलत तरीके से खून न आना चहिए। सरीर में गडबडी का बडा लच्‍छन है। अम्‍मा न जाने कैसी होगी। बुढिया माई। परभवा हमार बिटिया है कभी गलत काम नहीं करेगी। नरेसवा आवारा है जादू करवा दिया हमरी बेटी पर। दस साल में उसे पहली बार अम्‍मा की याद आई। अम्‍मा उसे चाहती थीं। उन्‍होंने उससे कहा था कि नरेसवा उससे कभी शादी नहीं करेगा। ऐसा हुआ भी नरेस शादी की बात टालता रहा और फ‍िर उसने खुद कुछ कहना छोड दिया।
शाम हो गई थी। आंगन में लालटेन टांगने के बाद वो खाना बनाने की तैयारियों में जुट गई। नरेस को देर हो रही थी। रोटी के लिए आटा गूंथ लिया। चिमटे से आग दुरुस्‍त करने लगी। ये चिमटा भी अजब भी लाख जला लो मगर फ‍िर भी जलने के लिए आतुर रहता है। नरेस अभी तक नहीं आया। रात गहरा रही थी। उसने हाथों के घेरे में अपने सिर को ढक लिया। ये उसकी आदत थी थक जाती तो ऐसे ही बैठती। साइकिल की हल्‍की सी आहट पर वो उठ खडी हुई।नरेस आ गया। हाथ में प्‍लास्टिक की पन्‍नी थी।नरेस आज मूड में था। उसने परभतिया के होंठो में अपना मुंह सटा दिया। वो भिन्‍नाते हुए पीछे हट गई। उसने पी रखी थी।

''मून्‍नू ने पिला दी। भगवान कसम जरा सी पी है।'' नरेस हंस रहा था। ''देख मूड मत खराब कर पहले एक बार हो जाए फ‍िर खाएंगें''। '' आ आ '' नरेस लगभग पुचकारते हुए उसे चौकी तक ले आया। और एक बार फ‍िर परभतिया उसके नीचे दब गई। कभी कहीं तो कहीं। नरेस उसे बुरी तरह से भंभोड रहा था। समूचा निगल जाने को आतुर। पूरे बीस मिनट बाद वो नरेस की कैद से आजाद हुई। खून फ‍िर निकला था। लेकिन आज वो खुश थी नरेस उसके लिए मुसम्‍मी का रस लाया था। उसने किनारे रखी प्‍लास्टिक उठाकर मुंह में लगा ली। ऐसा लगा जैसे तेजाब पी लिया हो ....सिर चकरा गया। हरामी प्‍लास्टिक में शराब भर लाया। चौकी पर लेटे हांफ रहे नरेस पर उसने सारी की सारी शराब उलट दी। नरेस गुस्‍साया नहीं हंस दिया। ''अरे पी ले सब दरद दूर हो जाएगा''।उसे जैसे आग लग गई। आग के पास पडा चिमटा उठाया और नरेस को दे मारा।चोट उसके सिर पर लगी , भन्‍ना गया। मगर चुप रहा। मजाक में उसने चिमटा एक बार फ‍िर उसकी तरफ उछाल दिया। चिमटा चूल्‍हे में जा गिरा। परभतिया का गुस्‍सा सातवें आसमान पर था। वो नरेस पर झपट पडी। नरेस की धोती खुल गई वो नंगा हो गया। उसने पूरी फुर्ती से नरेस के लटकते हिस्‍से को दांतों से पकड लिया।नरेस चीख उठा। आग में गिरा चिमटा धिककर लाल था। नरेस ने परभतिया को उठाया और चौकी पर पटक दिया। मारपीट में न जाने कब उसकी साडी जिस्‍म से गायब हो गई थी। नरेस उसे बुरी तरह से पीट रहा था। वो खामोश थी नरेस का गुस्‍सा बढता जा रहा था। वो चूल्‍हे में गिरे चिमटे को अपनी धोती से पकड के ले आया। आंख बंद किए परभतिया सिसक रही थी। उसका नंगा जिस्‍म आसमान के नीचे खुला पडा था। अचानक नरेस ने आग में लाल हुए चिमटे को परभतिया के अगले हिस्‍से पर रखकर दबा दिया। गर्म चिमटा मांस को पिघलाता चला गया। परभतिया एक लंबी चीख मारकर बेहोश हो गई। नरेस दहकते चिमटे घुमघुमाकर उसके अगले हिस्‍से को बंद कर रहा था।

4 comments:

जै़गम said...
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dimagless said...

the words and the visuals which comes in the mind while reading ,reminds the art movie taste.Very nice.....

Monika (Manya) said...

उफ़्फ़! मनो-मस्तिष्क का एक एक तार हिल गया.. ये त्रासदी. सच में जीवन के कुछ सअत्य जबतक सामने ना आये ठीक हैं.. बहुत सजीव है लिखा हुआ.. कई देर पहले पढा था .. अब तक सोच रही हूं.. शायद नहीं भूल पाउंगी.. देर तक..हा!...यह नग्न सत्य.. ये भूख.. और औरत... वो आज भी वहीं है...

Unknown said...

shayad isi liye kha gaya ki such, such hi hota hai or aksar such kaduaa or bhayanak hota hai.
SUNITA bhi such hai jiska pura desh intazar kar rha tha. lekin shayad ye usse bhi bada such hai jo bahut bhayanak hai, jo batata hai ki aaj bhi mahilao ki position kya hai.