Friday, September 28, 2007

मैं ख्वाब हूं....

मैं ख्वाब हूं....
मुझे पलने दो अपनी पलकों में
जरा सी देर को मैं भी सूकून पा जाउं
जरा सी देर की राहत, जरा सी मदहोशी
जरा सी देर की ठंडक, जरा सी बेहोशी...........


मैं ख्वाब हूं.......मुझे जीने दो, दो घडी ही सही

अभी न अश्क बहाओ, न आंख खोलो तुम
रहो खमोश रहो लब से कुछ न बोलो तुम
सम्हालो जिस्म को अपने न थरथराए अब....
मैं गिर पडूंगा..बिखर जाउंगा फिर कुछ ऐसे
तमाम उम्र समेटोगी तुम मेरे टुकडे........

मैं ख्वाब हूं..........

Thursday, September 27, 2007

कई दिन हो चुके हैं.....

कई दिन हो चुके हैं.....तुम नहीं हो
कई दिन हो चुके हैं.... कुछ नहीं है

जिंदगी ठहरी हुई...
हलचल नहीं, आहट नहीं
उदासी और सन्‍नाटा है
मन के ताल में...
तुम फेंक दो कंकर सुनहरे प्रेम का
लहर उठ जाए..मन फ‍िर हो तरंगित
फ‍िर वही आवाज़ हो
कहो कुछ तो कहो मत चुप रहो अब
मधुर संगीत जीवन कामेरे कानों में फ‍िर घोलो
ज़रा हौले से तुम बोलो
तुम फ‍िर आओगी..इतना तो कहो.....

क्‍योंकि...कई दिन हो चुके हैं.....तुम नहीं हो
कई दिन हो चुके हैं....कुछ नहीं है


सुनो, ये दिन नहीं सदियां हैं जो गुजरेंगीं जाने कब
न जाने कब तुम आओगी
मगर आओगी तो हंस दोगी
कह भी दोगी पागल मत बनो
लेकिन सुनो...बनना कहां बस में है
मैं बेबस हूं अब
तुम्‍हारा ही तो जादू है
सुनो..जादू ये वापस ले लो अपना
मुझे फ‍िर से बना दो
वही जो था मैं...इक तन्‍हा मुसाफ‍िर
मुसाफ‍िर जो चला जाएगा एक दिन
हमेशा के लिए...
यही सच है..मैं डरता हूं बहुत इस सच से फ‍िर भी....
तुमसे मिलना चाहता हूं, बात करना चाहता हूं
और कहना चाहता हूं........

अब आ जाओ...कई दिन हो चुके हैं

कई दिन हो चुके हैं.....तुम नहीं हो
कई दिन हो चुके हैं........कुछ नहीं है।।।।।।।।।।।।

Wednesday, June 27, 2007

सच्‍ची खबरें





अशोक चक्रधर का नाम और हंसी एक दूसरे के पर्याय हैं। मगर उनकी हंसी कभी-कभी तीखे प्रहार कर जाती है। उनके ''ए जी सुनिए'' संकलन से खबर पर एक जबर्दस्‍त व्‍यंग्‍य पेश है। अखबारों की नौकरी करने वाले पढे और अपना सिर धुनें....




सच्‍ची खबरें, सच्‍ची खबरें
आप चार दिन रहे लापता
अखबारों में खुद गई कबरें
सच्‍ची खबरें......



खबरें छप गईं, प्‍यार हो गया
कहां हुआ है - हो जाएगा
समाचार ऊपर से आया
रोको इसको - नो जाएगा
खबर छप गई लट्ठ गड गया
कहां गडा है - गड जाएगा
खबर छप गई, छापा पड गया
कहां पडा है, पड जाएगा
देख रहीं अनकिए काम को
पता नहीं ये किसकी नजरें
सच्‍ची खबरें......


अगर न दी वाशिंग मशीन तो
लडका मेरा अड जाएगा
और बताया अगर किसी को
लडकी वाले, सड जाएगा
दाल बंट रही है जूतों में
कहां बंटी हैं बंट जाएगी
खबर अटपटी, खबर चटपटी
नहीं घटी है घट जाएगी
जो छप गईं सो छप गईं प्‍यारे
अच्‍छी लगें या तुमकों अखरें
सच्‍ची खबरें......




बाद सगाई के, बेटा तेरा
पागल हो गया - दैया री दैया
इकलौते सुत की किडनैपिंग
ये क्‍या हो गया - दैया री दैया
रामनरायन जीते इलेक्‍शन
फोरकास्‍ट तो फ‍िट है भैया
रोडी जिसने रिदम में कूटी
गीतकार वो हिट है भैया
पत्रकार जी लिखें धकाधक
बीयर पीकर मुर्गा कुतरें
सच्‍ची खबरें......


खबर छप गई रिहा हो गए
कहां हुए हैं - हो जाओगे
खबर छपी गुमशुदा तलाशी
मैं तो हूं पर - खो जाओगे
खबर अटपटी खबर चटपटी
नहीं घटी है - सच्‍ची मानो
हुई लूट ये खबर झूठ पर
अगर छपी है सच्‍ची मानो
शांत झील के पानी में भी
बना रहीं हलचल की भंवरें
सच्‍ची खबरें.......


आप चार दिन रहे लापता
अखबारों में खुद गईं कबरें।।

Monday, June 25, 2007

प्रेम के पांच गीत



''........जिंदगी एक फूल होती है, जो मुरझा जाती है; जिंदगी एक पत्‍थर होती है और घिस जाती है; जिंदगी लोहा होती है और जंग खा जाती है; जिंदगी आंसू होती है और गिर जाती है; जिंदगी महक होती है और बिखर जाती है; जिंदगी समंदर होती है जिस पर लहर दर लहर खराशें पड़ती रहती हैं...हमेशा''



1
फ़रियादे इश्‍क को मेरी मंजूर कर दिया
दिल मेरे अख्तियार से कुछ दूर कर दिया

करके इस एक बला में नई उसने मुब्‍तला
दुनिया की हर बला से मुझे दूर कर दिया

कहता हूं दिन को रात जो कहते हो तुम तो हाय
तुमने भी किस कदर हमें मजबूर कर दिया

जै़गम को कह रहे हो है कि जूती है पांव की
किस बात ने इतना तुम्‍हें मग़रुर कर द‍िया।।


2


फुरसत उसे कहां कि मेरी इल्‍तजा सुने
सुनने को और कुछ है बहुत मेरी क्‍या सुने

मर जाऊंगा घड़ी में खुशी की ये बात है
कह दे तबीब जोर से वो भी जरा सुने

नश्‍तर चुभो के सीने से दिल को निकाल दे
सुननी जिसे है दर्दे जिगर की दवा सुने

उसका लिहाज बज्‍़म में आता था सामने
वरना मजाल क्‍या कि कोई मेरी ना सुने

सुनना किसी का मायने रखता नहीं है फ‍िर
जैगम अगरचे बात न अपनी खुदा सुने।।

3

उट्ठा न जाए आज तेरी बज्‍़मगाह से
इतनी पिला दे साकिया मुझको निगाह से


दिल में रहा तेरे तो संवर जाऊंगा जरुर
मर जाऊंगा जो तूने गिराया निगाह से


कमअक्‍ल हैं ये सारे के सारे जहां के लोग
कातिल का नाम पूछते हैं बेगुनाह से


जै़गम मैं मांगता हूं दुआ हर घडी यही
मौला बचाए रखना मुझे हर गुनाह से।।

4

दिन मेरे यूं गुज़र नहीं होते
आप गर हमसफर नहीं होते


सोचते हैं कि हम कहां होते
तेरी बाहों में गर नहीं होते


कोशिशें लाख कीं बहुत की हैं
रुबरु वो मगर नहीं होते


लुत्‍फ़ ले ले जवानी है जै़गम
ऐसे दिन उम्रभर नहीं होते।।

5


संगदिल जख्‍म का हिसाब न कर
दिल के जख्‍मों को तू बेनक़ाब न कर


रफ्ता रफ्ता ही मुझको जलने दे
इस शमा को तू आफ़ताब न कर


इतना एहसान मुझपे कर दे तू
मुझको दीवाना इंतख़ाब न कर


मैं बहक जाऊंगा मेरे सारी
अपनी नज़रों को तू शराब न कर


वस्‍ल की रात आज है ज़ालिम
आज तो रुख पे तू नक़ाब न कर


इक गुजारिश है तुझसे ये ज़ैगम
मैं हकीकत हूं मुझको ख्‍वाब न कर।।


बनारसी पन से मुक्त होना चाहती है नई पीढ़ी

अनिल सर उर्फ अनिल पांडे जी संडे इंडियन में रिपोर्टर हैं। शब्‍दों के माहिर खिलाडी। हाल में एक स्‍टोरी के सिलसिले में बनारस गए तो वहां के बदलाव के बारे में कुछ बेहतरीन मसाला लाए। एडीटेड कापी उनकी मैगजीन में छपी है। नान एडीटेड यहां पेश कर रहा हूं। ये भी बतात चलूं कि नीचे जिस मॉल का जिक्र हो रहा है संडे को उसमें घुसने के लिए 10 रुपये की फीस अदा करनी होती है......



कभी फुटपाथ किनारे चाय की दुकानों पर अड्डेबाजी करने वाले राहुल और उसके साथियों की शामें अब बनारस के सिगरा स्थित आईपी माल में गुजरती हैं. मैकडोनाल्ड के रेस्तरां में कोक और बर्गर के साथ दोस्तों के साथ गपशप..फिल्म देखना और कभी कभी बीयर के दो पैक मार लेना उनकी दिनचर्या में शुमार है. किसी एमएनसी में बढ़ियां सी नौकरी करना और विदेश में बसना उनका ख्वाब है. बीटेक कर रहे राहुल को बनारस अब बहुत बोर शहर लगने लगा है. उन्हें मलाल है कि वह दिल्ली क्यों नहीं गए पढ़ने. जींस और टी शर्ट पहने राहुल को गमछे से शख्त नफरत है. गमछा किसी बनारसी के लिए "आइ़डेंटी कार्ड" की तरह है. जबकि राहुल और उसके दोस्तों को यह गमछा "गंवारपन" का सर्टीफिकेट लगता है. और गंगा तो आम बनारसियों को मैली होने के बाद भी पवित्र लगती हैं जबकि इनके लिए गंगा एक प्रदूषित नदी भर है. राहुल कहते हैं, "बनारस में ऐसा क्या है जो यहां रहा जाए.. पान खा कर गाली देने के अलावा यहां के लोगों को कुछ काम ही नहीं है."

यह बनारस के बदलाव की एक झलक भर है. यह उस शहर की नई पीढ़ी है जिस शहर के बिस्मिल्ला खान और डा. वीरभद्र मिश्र ने लाख मौका मिलने के बाद भी इसे कभी नहीं छोड़ा. यह दोनों तो बानगी भर हैं. बनारस में ऐसे सैकड़ों लोग मिल जाएंगे जिन्हें विदेश में नौकरी और बसने का मौका मिला लेकिन वे इस शहर को छोड़ कर नहीं गए. इनके बनारस न छोडने की बस एक ही वजह थी- यहां की मस्ती और गंगा. विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक विस्मिल्ला खान से जब विदेश में न बसने की वजह पूछी गई तो उनका जबाव था, "वहां गंगा कहां मिलती..." तुलसी घाट पर बैठे प्रसिद्ध पर्यावरणविद व आईआईटी, बनारस में प्रोफेसर रहे डा. वीर भद्र मिश्र कहते हैं, "बनारस छोड़कर कभी कहीं जाने की इच्छा ही नहीं हुई. जब भी कभी व्याख्यान देने विदेश जाता हूं तो अपने साथ गंगा जल ले कर जाता हूं. बिना गंगा के सब सूना लगता है" डा. वीर भद्र मिश्र यहां के प्रसिद्ध संकटमोचन मंदिर के महंत भी हैं. दरअसल यह गंगा की नहीं गंगा के तट पर बसे बनारस की मस्ती है, यहां का फक्कड़पन है जो उन्हें यहां रोक कर रखती है. बाबा महादेव की नगरी में एक जुमला बहुत मशहूर है-"जो मजा बनारस में, न पेरिस में न फारस में." और इस मजे के लिए लोग अपना सुख और ऐशो आराम छोड़ कर बनारस में ही जमे रहते हैं. बनारस के बारे में कहा भी जाता है, "चना, चबैना गंग जल, जो पुरवे करतार. काशी कबहू न छोड़िए, विश्वनाथ दरबार." सही कहें तो यह वाक्य बनारस के पूरे जीवन दर्शन का निचोड़ है. यहां के लोगों को न धन चाहिए, न दौलत, बस चना और चबैना के साथ गंगा जल मिलता रहे तो वे कभी काशी नहीं छोड़ना चाहेंगे. लेकिन अब इस दर्शन को जीने वाले लोगों की तादाद में धीरे धीरे कमी आ रही है. नई पीढ़ी तो बनारस की आध्यात्मिक शांति और मस्ती से दूर होती जा रही है. वह बनारसीपन से मुक्त होना चाहती है. वरिष्ठ साहित्यकार और बनारस की मस्ती को जीने वाले प्रो. गया सिंह कहते हैं, "काशी अपनी परंपरागत चाल से चल रहा था कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने यहां के जनजीवन की शांति में खलल डाल दिया है. उपभोक्तावाद ने यहां की नई और पुरानी पीढ़ी के बीच दूरी बढ़ा दी है. पश्चिम की तथाकथित नई संस्कृति युवाओं को धीरे धीरे अपनी गिरफ्त मे ले रही है. लिहाजा वे बनारस की संस्कृति और परंपरा से कटते जा रहे हैं."

बनारस एक ऐसा शहर है जहां जन-जीवन की शुरआत अल भोर से होती है और रात 12 बजे तक चहल पहल बरकरार रहती है. सुबहे बनारस की ख्याति तो दूर दूर तक है. गंगा के मैली होने से यहां के लोगों में उसकी श्रद्दा कम नहीं हुई है लेकिन "सुबहे बनारस" की छटा इससे जरूर प्रभावित हुई है. दुनियाभर के लोग जिस शांति की तलाश में यहां आते हैं तो बनारस के घाट ही उन्हें वह शांति प्रदान करते हैं. लेकिन अब घाट घाट न रह कर पर्यटन स्थल बनते जा रहे हैं. घाटों के किनारे के घर होटल और मोटल में तब्दील हो गए हैं. घाटों पर पूजा करने वाले पंडिज जी लोग अब पूजा पाठ छोड़कर होटल का व्यवसाय कर रहे हैं. अशोक पांडेय कहते हैं, "बनारस के घाट अब घाट नहीं रह गए जुहू चौपाटी बन गए हैं. पंडों ने अपने घरों को पेइंग गेस्ट हाउस में तब्दील कर दिया है. जजमानों को आशीर्वाद देने वाले हाथ अब अंग्रेजों के कपड़े धुल रहे हैं और उनके लिए खाना बना रहे हैं." बाजार ने काशी के रक्षक पंडितों को धोबी और बाबर्जी बना दिया है.

प्रो. गया सिंह की माने तों काशी पर बाजार के साथ साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अन्य जिलो और बिहार के लोगों का भी आक्रमण हुआ है. जिससे यहां की संस्कृति खतरे में पड़ गई है. लोग पढ़ाई और रोजगार की तलाश में यहां आए और यहीं के हो कर रह गए. प्रो. गया सिंह कहते हैं, "इससे न केवल शहर पर जनसंख्या का बोझ बढ़ा बल्कि इससे काशी की मस्ती में भी खलल पड़ा, क्योंक जो लोग बाहर से आए वह काशी की संस्कृति और परंपरा से अनजान थे." बाहरी लोगों के बसने की वजह से यहां की भाषा भी प्रभावित हुई. गालियों से लबरेज काशी की बोली में गजब की मस्ती और फक्कड़पन है. प्रसिद्ध साहित्यकार और चर्चित उपान्यास के लेखक प्रो. काशी नाथ सिंह कहते हैं, "यहां की बोली और गाली में एक मधुर रिश्ता है. ये गालियां आत्मीयता की सूचक होती हैं. अगर यहां कोई अपने किसी मित्र से बिना गालियों के संबोधन से बात करें, तो दूसरा मित्र पूछ बैठेगा कि सब ठीक ठाक तो है." लेकिन जिन गालियों को पुरानी पीढ़ी के लोग प्यार की भाषा मानते थे, नई पीढ़ी उन्हें अश्लील और फूहड मानती है.
बनारस बदल रहा है और लोगों के जीवन से बनारसीपन दूर होता जा रहा है. सुस्त चाल में चलने वाला यह शहर अब बाजार की दौड़ में शामिल हो गया है. लिहाजा यह शहर अब हड़बड़ी में रहने लगा है. लोगों के पास अब घाट पर घूमने और बहरी अलंग के लिए समय ही नहीं है. बहरी अलंग के तहत लोग शाम को घाटों पर इकठ्ठा होते और नाव में सिल बट्टे पर भांग घोटते गंगा के उस पार जाते और फिर मस्ती का घूंट पी कर दिन छिपने के बाद घर वापस लौटते. बाजार ने उनके रहने सहन को भी प्रभावित किया है. अशोक पांडेय कहते हैं, "जब पश्चिम के लोग हमारी संस्कृति की तरफ आकर्षित हो रहे हैं तो हम उनकी नकल पर उतारू हैं. वे हमारी धोती पहन रहे हैं जबिक हमारे युवा उनकी जींस की तरफ आकर्षित हो रहे हैं."
राजनीति ने भी बनारस को तोड़ा है. काशी का अस्सी कस्बा अपनी बौद्धिक बहसों और बुद्दिजीवियों के अड़्डे के रूप में जाना जाता है. देश के नामीगिरामी बुद्दिजीवियों, लेखकों, साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों का यहां अवागमन रहता है. यहां की पप्पू व केदार की चाय की दुकान में आप को बनारस के तमाम बुद्दिजीवी मिल जाएंगे. प्रसिद्ध साहित्यकार धूमिल और नामवर सिंह का अस्सी अड़्डा रहा है. मधु दंडवते, राम मनोहर लोहिया, मधु लिमए और राज नारायण भी यहां आया करते थे. बहस मुहाबसों का अस्सी में ऐसा दौर हुआ करता था कि यहां की सड़के "संसद" के नाम से "कुख्यात" थीं. लेकिन राजनीति ने बुद्धिजीवियों को भी आपस में बांट दिया है और अब विचारधारा के आधार पर उनकी अलग अलग चाय की दुकाने हैं. प्रो. काशी नाथ सिंह कहते हैं, "अब यहां असहमित की गुंजाइश खत्म हो गई है. पहले लोगों के बीच संवाद हुआ करता था, लेकिन अब संवादहीनता की स्थिति बन गई है. लिहाजा अस्सी पर आने वाले लोग तितर बितर हो गए हैं."
सनातनी परंपरा वाले इस शहर में एक मॉल खुल गया है. काशी के रक्षक इसे बाजार का पहला हमला मान रहे हैं. लेकिन जल्दी ही यहां कई और माल खुलने वाले हैं. हालांकि बनारस अभी बाजार का उतना शिकार नहीं हुआ है जितना दूसरे शहर. हालांकि बाजार की चमक दमक से देश दुनिया के सभी शहर प्रभावित हो रहे हैं. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि वह शहर जहां पश्चिम के लोग उपभोक्तावाद और बाजार की चकाचौंध से भाग कर शांति की तलाश में आया करते है, वह शहर अब बाजार की चकाचौंध की तरफ आकर्षित हो रहा है. बनारस के बुद्धिजीवी चिंतित हैं कहीं बाजार की आंधी में इस शहर की परंपरा व संस्कृति तहस नहस न हो जाए. संस्कृति व परंपराएं इतनी आसानी से तहस नहीं होती और वह भी बनारस की, जिसकी जड़े बहुत गहरी हैं. लेकिन एक बात तो साफ है नई पीढ़ी बनारसीपन से मुक्त होने के लिए छटपटा रही है.

Friday, June 22, 2007

बनियों की गली

गली में बनियों का राज था। ढेर सारी दुकानें, आढतें और न जाने कितने गोदाम। सब के सब इसी गली में थे। बनिए और उनके नौजवान लडके दिन भर दुकान पर बैठे ग्राहकों से हिसाब किताब में मसरुफ रहते। शुरु -शुरु में वो इस गली से गुजरने में डरती थी, न जाने कब किसकी गंदी फब्‍ती कानों को छलनी कर दे। फ‍िर क्‍या पता किसी का हाथ उसके बुरके तक भी पहुंच जाए। डरते सहमते जब वो इस गली को पार कर लेती तब उसकी जान में जान आती। मगर डर का यह सिलसिला ज्‍यादा दिनों तक नहीं चला। उसने गौर किया ग्राहकों से उलझे बनिए उसकी तरफ ज्‍यादा ध्‍यान नहीं देते। हां इक्‍का दुक्‍का लडके उसकी तरफ जरुर देखते मगर उनकी जिज्ञासा उसके शरीर में न होकर के उस काले बुर्के में थी जिससे वो अपने को छुपाए रखती थी।
वो पढती नहीं थी, छोटी क्‍लास के बच्‍चों को पढाती थी। तमाम शहर में मकान तलाशने के बावजूद जब उसके अब्‍बा को मकान नहीं मिला तो हारकर इस बस्‍ती का रुख करना पडा। अब्‍बा ने मशविरा दिया था ''बेटी घर से बाहर न निकलो'' मगर उनकी आवाज में ज्‍यादा दम नहीं था। घर में कमाने वाला कोई न था फ‍िर वो कुछ रुपयों का इंतजाम कर रही थी तो इसमें बुरा क्‍या था। दिन गुजर रहे थे उसके स्‍कूल जाने का सिलसिला जारी था। उसने नोट किया इधर बीच बनियों की गली के ठीक बाद पडने वाले चौराहे पर पास के मदरसे के तीन चार लडके रोज खडे रहते हैं। उसने ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया। दिल में एकबारगी आवाज उठी , भला इनसे क्‍या डरना। एक दिन अजीबो गरीब बात हुई। चौराहे पर एक लडका उसके ठीक सामने आ गया। हाथ उठाकर बडी अदा से कहा अस्‍सलाम आलेकुम। वो चौंक गई। उसके लडकों से इस तरह की उम्‍मीद कतई नहीं थी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। कलेजा थर थर कांप रहा था। वापसी में भी वही लडके उसके सामने खडे थे। उसने घबरा कर तेज तेज चलना शुरु कर दिया। लडके उसकी तरफ बढे मगर वो फटाक से बनियों की गली में घुस गई। लंबी -लंबी दाढी, सफाचट मूंछ ओर सिर पर गोल टोपी रखने वाले लडकों के इरादे उसे वहशतनाक लगे। रात को वो सो नहीं सकी। रात भर जहन में यही ख्‍याल आता रहा कि कल क्‍या होगा। उसने ख्‍वाब भी देखा , बडी दाढी वाले एक लडके ने उसका दुपट्टा खींच लिया है।
स्‍कूल जाने का वक्‍त हो गया था। वो दरवाजे तक गई मगर फ‍िर लौट आई। आज फ‍िर बदतमीजी का सामना करना पडा तो.....। उसने अब्‍बा से दरख्‍वास्‍त की, उसके साथ स्‍कूल तक चलें। उसने खुलकर कुछ नहीं कहा। अब्‍बा ने भी कुछ नहीं पूछा। मगर उन्‍हें बनियों पर बेतहाशा गुस्‍सा आया। दांत किचकिचाते हुए उन्‍होंने अंदाजा लगा लिया कि बनिये के किसी लडके ने उनकी बेटी को छेडा है। बेटी को गली के पार पहुंचाने के बाद वो वापस लौटने लगे। चौराहे पर अभी भी वो लडके खडे थे। उसने अब्‍बा से स्‍कूल तक चलने की बात कही। आज लडके कुछ नहीं बोले। वापसी में उसका दिल जोर जोर से धडक रहा था। मगर नहीं चौराहे पर लडके नदारद थे। उसने खुदा का शुक्र अदा किया। घर पहुंची तो अम्‍मा उसकी परेशानी का सबब पूछ रहीं थीं। अम्‍मा बार बार बनियों को गाली भी दे रहीं थीं। उन्‍होंने उसे गली छोडने की सलाह भी दी। मगर वो कुछ नहीं बोली।
आज अब्‍बा घर नहीं थे। उसे पहले की तरह अकेले स्‍कूल जाना था। गली से चौराहे पर पहुंचते वक्‍त उसका कलेजा धाड धाड बज रहा था। चौराहे पर लडके हमेशा की तरह उसके इंतजार में खडे थे। वो हिम्‍मत बांधकर आगे बढी मगर फ‍िर एक लडका उसके सामने आ गया। उसके बढने के अंदाज ने उसकी रीढ में सिहरन पैदा कर दी। उसके मुंह से चीख निकल गई। वो वापस बनियों की गली की तरफ दौड पडी। गली के बनिये सारा तमाशा देख रहे थे। शरीफ लडकी से छेडछाड उन्‍हें रास नहीं आई। गली के नौजवान मदरसों के इन लुच्‍चों की तरफ दौड पडे। जरा सी देर में पूरी गली के बनिये शोहदों की धुनाई कर रहे थे। भीड लडकों को पीट रही थी और वो चुपचाप किनारे से स्‍कूल निकल गई। वापस में चौराहा खामोश था। लडके नदारद थे। गली से गुजरते वक्‍त उसे ऐसा लगा कि हर कोई उसे देख रहा है। मगर ये आंखें उसे निहारने के लिए नहीं उठी थीं। ये सहानूभूति और गर्व से उठी नजरें थीं जो उसे बता रहीं थीं कि चिंता मत करो हम अपनी बहू बेटियों के साथ छेडछाड करने वालों का यही हश्र करते हैं।
घर पहुंची तो देखा अब्‍बा एक मौलवी से गूफ्तगू कर रहे हैं। ये उस मदरसे के प्रिंसिपल थे जहां मार खाने वाले लडके तालीम हासिल कर रहे थे। अब्‍बा ने उसे हिकारत की नजर से देखा। उसे कुछ समझ नहीं आया। कमरे में गई अम्‍मा से मसला पूछने। जबान खोली ही थी कि एक थप्‍पड मुंह पर रसीद हो गया।
उसे समझ नहीं आया कि आखिर माजरा क्‍या है। अम्‍मा सिर पटक रहीं थीं, उसने खानदान के मुंह पर कालिख पोत दी। अम्‍मा बयान कर करके रोए जा रहीं थीं। उनकी बुदबुदाती आवाज में उसे सिर्फ इतना समझ आया, बनिए के लडकों से उसकी यारी थी जिन्‍होंने उन शरीफ तालिबे इल्‍मों को पीट दिया। उसका कलेजा मुंह को आ गया, आंखों में आंसू की बूंद छलक आई। अगली सुबह घर में खाना नहीं पका। उसके स्‍कूल जाना छोड दिया।

देहधर्म

कुतिया पीछे घूम ''। परभतिया की साडी खोलते हुए नरेस ने उसे चौकी पर पटक दिया। नंगी परभतिया बेमन से अगाडे के बल चौकी पर पलट गई। वो पीछे से उसके भीतर घुसने की कोशिश करने लगा। सीने के बल लेटी परभतिया के दोंनो उभार चौकी की कठोर लकडी से दबे हुए थे। सिसकारी निकली मगर उसने दबा ली, बिटुआ जाग जाएगा। छाती चूस चूस के बेहाल हो गया तब कहीं जाकर नींद आई। दूध नहीं है कमबख्‍त सीना फ‍िर भी उठा जा रहा है। भगवान जाने कोई बीमारी हो गई लगती है। ''साली रंडी ... पिछाडा भी खराब हो गया है , घुसेडो तो ऐसे घुसता है जैसे सुरंग में...चल आगे''। नरेस ने उसके पिछाडे पर भरपूर हाथ मारा। दर्द बर्दाश्‍त करते हुए उसने अपने सामने का हिस्‍सा उसके सामने परोस दिया। वो फ‍िर शुरु हो गया। झटके पर झटके लग रहे थे मगर वो खामोश थी। आदत पड गई थी। बिटुआ के जनम से पहिले से यह सब चल रहा है। कभी आगे तो कभी पीछे। ''....चल उठ। खा खा के सांड होती जा रही है मगर देह में कुछ नहीं है जिधर हाथ लगाओ लगता है मांस उखडकर हाथ में आ जाएगा''। नरेस अब थक चुका था चूल्‍हे के पास पहुंचकर बीडी सुलगाने लगा। '' खाना लगा दे ... ''
बदन

पर साडी डाल के परभतिया चूल्‍हे के पास जा पहुंची। आटा गूंथा रखा था। सब्‍जी बन चुकी थी बस रोटी सेंकनी बाकी थी। आटे की लोई हाथ्‍ा से थपथपा कर उसने तवे पर डाल दी। चिमटा हाथ्‍ा में था। रोटी पलटी और वापस टोकरी में डाल दी। लोहे का चिमटा पूरी रफ्तार के साथ चूल्‍हे मे चल रहा था। रोटिया लगातार बनती जा रही थीं। नरेस हाथ्‍ा मुंह धोकर वापस आ चुका था। थाली में खाना सजाए परभतिया उसके सामने पहुंची। नरेस खा रहा था और वो हमेशा की तरह उसे पंखा झल रही थी।
वो

नरेस की बीबी नहीं थी। उसे नरेस से इश्‍क था। भागकर आई थी अपने घर से। तब नरेस भी ऐसा नहीं था। बिल्‍कुल छैला था। शहर में रहके आया था। सिगरेट पीता था, धुंवे के खूबसूरत छल्‍ले निकालता था। वो उस पर आशिक थी। खैर पहले वो भी परभतिया नहीं थी। उसका नाम प्रभा था। बापू ने बडे चाव से ये नाम रखा था। बहुत सुंदर तो नहीं थी मगर नैन नक्‍श तीखे थे। नरेस कहता था ऐसी लडकियों को शहर में '' बिलैक ब्‍यूटी'' कहते हैं। नरेस के साथ भागी तो सोचा था शहर में रहेगी। मगर नरेस वापस शहर नहीं गया। कहता था, ''वहां क्‍या रखा है। सडक के किनारे गुजारे करने से अच्‍छा है कि अपने गांव में दू रोटी खाके पडे रहो''। वो न जाने क्‍या क्‍या सोच रही थी। आधी रात गुजर चुकी थी। आसमान में तारे बिखरे पडे थे। नरेस चौकी पर बेसुध पडा सो रहा था। धोती खुल गई थी। सामने उसकी जान की दुश्‍मन सिकुडा लटक रहा था। वो कभी चड्ढी नहीं पहनता था। करवट बदलते बदलते धोती खुल जाती और वो नंगा हो जाता। हर राज नरेस नंगा होता और वो उसे देखती। एक रात जब वो उसे निहार रही थी, नरेस की आंख खुल गई। खुली धोती देखकर आग बबूला हो गया। पिल पडा लात घूंसों से मार मारके बेहाल कर दिया। '' कुत्‍ती साली मजाक करती है। बहुत देखे का सौक चर्राया है।'' नरेस का वो हिस्‍सा भी उत्‍तेजित हो गया था। '' ले ले'' कहकर उसने सारा का सारा जबरन उसके मुंह में घुसा दिया। वो नहीं भी नहीं कर सकी। गूं गूं करती रही। नरेस पागलों की तरह उसके मुंह के भीतर झटके पर झटका मारता रहा। थोडी देर बाद जब होश आया तब कहीं जाकर उसे मुक्ति मिली। उसने वहीं पर ढेर सारी उल्‍टी कर दी।
सुबह

होने में अभी एक घंटे का समय था। वो उठ गई। बिटुआ को नहलाना था। नरेस के लिए खाना तैयार करना था। एक बार फ‍िर एक के बाद एक गर्मागर्म रोटियां चूल्‍हे से बाहर निकल रहीं थीं। सुईठा धिककर लाल हो चुका था। परभतिया को उसकी गर्माहट अपने हाथ में महसूस हो रही थी। वो कई बार सुईठे से जल चुकी थी। हाथ की खाल कई जगहों पर काली थी। '' खाने का डिब्‍बा दे'' नरेस की आवाज थी। वो साइकिल पर चढकर जाने के लिए तैयार हो चुका था। वो रोज दरवाजे पर खडी होकर उसे जाते देखते थी। साइकिल जब तक आंखों से ओझल न हो जाती देखती रहती। आखिर में नरेस बिल्‍कुल दिखना बंद हो जाता और वो चौकी पर आकर पसर जाती। बिटुआ फ‍िर रो रहा था। उसने फटाक से ब्‍लाउज का एक सिरा उठाया और दूध की सूखी धार उसके मुंह में थमा दी। छाती में हलचलें शुरु हो गईं बिटुआ दूध की खोज में जुटा था और वो कुछ सोच रही थी। अबकि ठीक समय पर माहवारी नहीं हुई। भीतर दरद भी होता है पर नरेस को कौन समझाए। शाम हो गई थी। सूरज जल जलकर थक चुका था। अब वापस लौट रहा था अपने साथ अपनी रोशनी समेट के। उसने लालटेन जला दी। हर शाम को उसका पहला यही काम था। लालटेन जलाकर आंगन में टांग देना। सांझ को रोशनी बहुत जरुरी है। अंधेरे में लक्ष्‍मी माई भला कइसे आ पाएंगीं। साइकिल के पहियों की आवाज थी। नरेस लौट आया। बीडी बदस्‍तूर उसके मुंह में सुलग रही थी। काम कर करके थक जाता है बेचारा , उसे दया आ रही थी ईंट मिट्टी गारा क्‍या नहीं करना पडता। दिन भर खून जलाओ तब कहीं जाकर चार पैसे हाथ में आते हैं। उसने नरेस से कहा था वो भी मजूरी करना चाहती है। मगर नरेस तैयार नहीं हुआ। ठेकेदार साले अव्‍वल नंबर के मादरचो..होते हैं , पहिले काम करो फ‍िर उनको खुश करो तब कहीं जाकर पइसा देते हैं। ज्‍यादा चूं चपड की तो मजूरी गई हाथ से।
''

अरे आ आना क्‍या हुआ रोज नखरे करती है नहीं देना है तो बता दे इसका इंतजाम भी बाहर ही कर लूंगा।'' नरेस उसे चौकी की ओर खींच रहा था। उसने कहा कि अंदर दरद है मगर नरेस बेपरवाह ''अभी ठीक हो जाएगा ले... ''। और एक बार फ‍िर वो अगाडे के बल चौकी पर पडी थी। नरेस पिछले रास्‍ते से उसके अंदर पहुंच चुका था। और फ‍िर रोज की तरह अगला रास्‍ता भी उसे नरेस के हवाले करना पडा। नरेस थककर चूर हो गया। उसने देह में साडी लपेटी और चूल्‍हे की तरफ चल दी। गर्मामर्ग रोटियां बाहर आने लगीं। चिमटे से कभी रोटी अलग तो कभी पलट। चिमटा लाल था उसके हाथ करीब करीब जल रहे थे मगर उसने चिमटा नहीं छोडा। आंखों से गिरे आंसू बार बार आटे में गिर रहे थे। नरेस खाना खाकर हमेशा की तरह चौकी पर पसरा हुआ था।धोती खुल गई थी।
परभतिया का पोर पोर दर्द में डूबा था। आज नरेस उसके साथ ज्‍यादा बेदर्दी के साथ पेश आया। अंदर से खून तक निकल गया। नरेस ने कल अस्‍पताल चलने की बात कही है

, दिखाना जरुरी है। मैं भी चलूं टिफ‍िन देते हुए उसने नरेस से पूछा था। कहां। अस्‍पताल। रात में कहे तो थे कि कल ले चलेंगे। हां मगर ठेकेदार की गाली कौन सुनेगा बाद में चलेंगे। तू काहे डाक्‍टरन के चक्‍कर में पडती है कुछ नहीं हुआ। सांझ को तेरे लिए मुसम्‍मी का रस लाऊंगा पी लेना ताकत आ जाएगी। नरेस चला गया। वो उसे देखती रही। तब तक जब तक साइकिल ओझल नहीं हो गई। बिटुआ का मुंह अपनी छाती में देकर वो चौकी पर सो गई। अम्‍मा कहतीं थीं कि इस जगह से कभी गलत तरीके से खून न आना चहिए। सरीर में गडबडी का बडा लच्‍छन है। अम्‍मा न जाने कैसी होगी। बुढिया माई। परभवा हमार बिटिया है कभी गलत काम नहीं करेगी। नरेसवा आवारा है जादू करवा दिया हमरी बेटी पर। दस साल में उसे पहली बार अम्‍मा की याद आई। अम्‍मा उसे चाहती थीं। उन्‍होंने उससे कहा था कि नरेसवा उससे कभी शादी नहीं करेगा। ऐसा हुआ भी नरेस शादी की बात टालता रहा और फ‍िर उसने खुद कुछ कहना छोड दिया।
शाम हो गई थी। आंगन में लालटेन टांगने के बाद वो खाना बनाने की तैयारियों में जुट गई। नरेस को देर हो रही थी। रोटी के लिए आटा गूंथ लिया। चिमटे से आग दुरुस्‍त करने लगी। ये चिमटा भी अजब भी लाख जला लो मगर फ‍िर भी जलने के लिए आतुर रहता है। नरेस अभी तक नहीं आया। रात गहरा रही थी। उसने हाथों के घेरे में अपने सिर को ढक लिया। ये उसकी आदत थी थक जाती तो ऐसे ही बैठती। साइकिल की हल्‍की सी आहट पर वो उठ खडी हुई।नरेस आ गया। हाथ में प्‍लास्टिक की पन्‍नी थी।नरेस आज मूड में था। उसने परभतिया के होंठो में अपना मुंह सटा दिया। वो भिन्‍नाते हुए पीछे हट गई। उसने पी रखी थी।

''मून्‍नू ने पिला दी। भगवान कसम जरा सी पी है।'' नरेस हंस रहा था। ''देख मूड मत खराब कर पहले एक बार हो जाए फ‍िर खाएंगें''। '' आ आ '' नरेस लगभग पुचकारते हुए उसे चौकी तक ले आया। और एक बार फ‍िर परभतिया उसके नीचे दब गई। कभी कहीं तो कहीं। नरेस उसे बुरी तरह से भंभोड रहा था। समूचा निगल जाने को आतुर। पूरे बीस मिनट बाद वो नरेस की कैद से आजाद हुई। खून फ‍िर निकला था। लेकिन आज वो खुश थी नरेस उसके लिए मुसम्‍मी का रस लाया था। उसने किनारे रखी प्‍लास्टिक उठाकर मुंह में लगा ली। ऐसा लगा जैसे तेजाब पी लिया हो ....सिर चकरा गया। हरामी प्‍लास्टिक में शराब भर लाया। चौकी पर लेटे हांफ रहे नरेस पर उसने सारी की सारी शराब उलट दी। नरेस गुस्‍साया नहीं हंस दिया। ''अरे पी ले सब दरद दूर हो जाएगा''।उसे जैसे आग लग गई। आग के पास पडा चिमटा उठाया और नरेस को दे मारा।चोट उसके सिर पर लगी , भन्‍ना गया। मगर चुप रहा। मजाक में उसने चिमटा एक बार फ‍िर उसकी तरफ उछाल दिया। चिमटा चूल्‍हे में जा गिरा। परभतिया का गुस्‍सा सातवें आसमान पर था। वो नरेस पर झपट पडी। नरेस की धोती खुल गई वो नंगा हो गया। उसने पूरी फुर्ती से नरेस के लटकते हिस्‍से को दांतों से पकड लिया।नरेस चीख उठा। आग में गिरा चिमटा धिककर लाल था। नरेस ने परभतिया को उठाया और चौकी पर पटक दिया। मारपीट में न जाने कब उसकी साडी जिस्‍म से गायब हो गई थी। नरेस उसे बुरी तरह से पीट रहा था। वो खामोश थी नरेस का गुस्‍सा बढता जा रहा था। वो चूल्‍हे में गिरे चिमटे को अपनी धोती से पकड के ले आया। आंख बंद किए परभतिया सिसक रही थी। उसका नंगा जिस्‍म आसमान के नीचे खुला पडा था। अचानक नरेस ने आग में लाल हुए चिमटे को परभतिया के अगले हिस्‍से पर रखकर दबा दिया। गर्म चिमटा मांस को पिघलाता चला गया। परभतिया एक लंबी चीख मारकर बेहोश हो गई। नरेस दहकते चिमटे घुमघुमाकर उसके अगले हिस्‍से को बंद कर रहा था।