Monday, June 25, 2007

बनारसी पन से मुक्त होना चाहती है नई पीढ़ी

अनिल सर उर्फ अनिल पांडे जी संडे इंडियन में रिपोर्टर हैं। शब्‍दों के माहिर खिलाडी। हाल में एक स्‍टोरी के सिलसिले में बनारस गए तो वहां के बदलाव के बारे में कुछ बेहतरीन मसाला लाए। एडीटेड कापी उनकी मैगजीन में छपी है। नान एडीटेड यहां पेश कर रहा हूं। ये भी बतात चलूं कि नीचे जिस मॉल का जिक्र हो रहा है संडे को उसमें घुसने के लिए 10 रुपये की फीस अदा करनी होती है......



कभी फुटपाथ किनारे चाय की दुकानों पर अड्डेबाजी करने वाले राहुल और उसके साथियों की शामें अब बनारस के सिगरा स्थित आईपी माल में गुजरती हैं. मैकडोनाल्ड के रेस्तरां में कोक और बर्गर के साथ दोस्तों के साथ गपशप..फिल्म देखना और कभी कभी बीयर के दो पैक मार लेना उनकी दिनचर्या में शुमार है. किसी एमएनसी में बढ़ियां सी नौकरी करना और विदेश में बसना उनका ख्वाब है. बीटेक कर रहे राहुल को बनारस अब बहुत बोर शहर लगने लगा है. उन्हें मलाल है कि वह दिल्ली क्यों नहीं गए पढ़ने. जींस और टी शर्ट पहने राहुल को गमछे से शख्त नफरत है. गमछा किसी बनारसी के लिए "आइ़डेंटी कार्ड" की तरह है. जबकि राहुल और उसके दोस्तों को यह गमछा "गंवारपन" का सर्टीफिकेट लगता है. और गंगा तो आम बनारसियों को मैली होने के बाद भी पवित्र लगती हैं जबकि इनके लिए गंगा एक प्रदूषित नदी भर है. राहुल कहते हैं, "बनारस में ऐसा क्या है जो यहां रहा जाए.. पान खा कर गाली देने के अलावा यहां के लोगों को कुछ काम ही नहीं है."

यह बनारस के बदलाव की एक झलक भर है. यह उस शहर की नई पीढ़ी है जिस शहर के बिस्मिल्ला खान और डा. वीरभद्र मिश्र ने लाख मौका मिलने के बाद भी इसे कभी नहीं छोड़ा. यह दोनों तो बानगी भर हैं. बनारस में ऐसे सैकड़ों लोग मिल जाएंगे जिन्हें विदेश में नौकरी और बसने का मौका मिला लेकिन वे इस शहर को छोड़ कर नहीं गए. इनके बनारस न छोडने की बस एक ही वजह थी- यहां की मस्ती और गंगा. विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक विस्मिल्ला खान से जब विदेश में न बसने की वजह पूछी गई तो उनका जबाव था, "वहां गंगा कहां मिलती..." तुलसी घाट पर बैठे प्रसिद्ध पर्यावरणविद व आईआईटी, बनारस में प्रोफेसर रहे डा. वीर भद्र मिश्र कहते हैं, "बनारस छोड़कर कभी कहीं जाने की इच्छा ही नहीं हुई. जब भी कभी व्याख्यान देने विदेश जाता हूं तो अपने साथ गंगा जल ले कर जाता हूं. बिना गंगा के सब सूना लगता है" डा. वीर भद्र मिश्र यहां के प्रसिद्ध संकटमोचन मंदिर के महंत भी हैं. दरअसल यह गंगा की नहीं गंगा के तट पर बसे बनारस की मस्ती है, यहां का फक्कड़पन है जो उन्हें यहां रोक कर रखती है. बाबा महादेव की नगरी में एक जुमला बहुत मशहूर है-"जो मजा बनारस में, न पेरिस में न फारस में." और इस मजे के लिए लोग अपना सुख और ऐशो आराम छोड़ कर बनारस में ही जमे रहते हैं. बनारस के बारे में कहा भी जाता है, "चना, चबैना गंग जल, जो पुरवे करतार. काशी कबहू न छोड़िए, विश्वनाथ दरबार." सही कहें तो यह वाक्य बनारस के पूरे जीवन दर्शन का निचोड़ है. यहां के लोगों को न धन चाहिए, न दौलत, बस चना और चबैना के साथ गंगा जल मिलता रहे तो वे कभी काशी नहीं छोड़ना चाहेंगे. लेकिन अब इस दर्शन को जीने वाले लोगों की तादाद में धीरे धीरे कमी आ रही है. नई पीढ़ी तो बनारस की आध्यात्मिक शांति और मस्ती से दूर होती जा रही है. वह बनारसीपन से मुक्त होना चाहती है. वरिष्ठ साहित्यकार और बनारस की मस्ती को जीने वाले प्रो. गया सिंह कहते हैं, "काशी अपनी परंपरागत चाल से चल रहा था कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने यहां के जनजीवन की शांति में खलल डाल दिया है. उपभोक्तावाद ने यहां की नई और पुरानी पीढ़ी के बीच दूरी बढ़ा दी है. पश्चिम की तथाकथित नई संस्कृति युवाओं को धीरे धीरे अपनी गिरफ्त मे ले रही है. लिहाजा वे बनारस की संस्कृति और परंपरा से कटते जा रहे हैं."

बनारस एक ऐसा शहर है जहां जन-जीवन की शुरआत अल भोर से होती है और रात 12 बजे तक चहल पहल बरकरार रहती है. सुबहे बनारस की ख्याति तो दूर दूर तक है. गंगा के मैली होने से यहां के लोगों में उसकी श्रद्दा कम नहीं हुई है लेकिन "सुबहे बनारस" की छटा इससे जरूर प्रभावित हुई है. दुनियाभर के लोग जिस शांति की तलाश में यहां आते हैं तो बनारस के घाट ही उन्हें वह शांति प्रदान करते हैं. लेकिन अब घाट घाट न रह कर पर्यटन स्थल बनते जा रहे हैं. घाटों के किनारे के घर होटल और मोटल में तब्दील हो गए हैं. घाटों पर पूजा करने वाले पंडिज जी लोग अब पूजा पाठ छोड़कर होटल का व्यवसाय कर रहे हैं. अशोक पांडेय कहते हैं, "बनारस के घाट अब घाट नहीं रह गए जुहू चौपाटी बन गए हैं. पंडों ने अपने घरों को पेइंग गेस्ट हाउस में तब्दील कर दिया है. जजमानों को आशीर्वाद देने वाले हाथ अब अंग्रेजों के कपड़े धुल रहे हैं और उनके लिए खाना बना रहे हैं." बाजार ने काशी के रक्षक पंडितों को धोबी और बाबर्जी बना दिया है.

प्रो. गया सिंह की माने तों काशी पर बाजार के साथ साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अन्य जिलो और बिहार के लोगों का भी आक्रमण हुआ है. जिससे यहां की संस्कृति खतरे में पड़ गई है. लोग पढ़ाई और रोजगार की तलाश में यहां आए और यहीं के हो कर रह गए. प्रो. गया सिंह कहते हैं, "इससे न केवल शहर पर जनसंख्या का बोझ बढ़ा बल्कि इससे काशी की मस्ती में भी खलल पड़ा, क्योंक जो लोग बाहर से आए वह काशी की संस्कृति और परंपरा से अनजान थे." बाहरी लोगों के बसने की वजह से यहां की भाषा भी प्रभावित हुई. गालियों से लबरेज काशी की बोली में गजब की मस्ती और फक्कड़पन है. प्रसिद्ध साहित्यकार और चर्चित उपान्यास के लेखक प्रो. काशी नाथ सिंह कहते हैं, "यहां की बोली और गाली में एक मधुर रिश्ता है. ये गालियां आत्मीयता की सूचक होती हैं. अगर यहां कोई अपने किसी मित्र से बिना गालियों के संबोधन से बात करें, तो दूसरा मित्र पूछ बैठेगा कि सब ठीक ठाक तो है." लेकिन जिन गालियों को पुरानी पीढ़ी के लोग प्यार की भाषा मानते थे, नई पीढ़ी उन्हें अश्लील और फूहड मानती है.
बनारस बदल रहा है और लोगों के जीवन से बनारसीपन दूर होता जा रहा है. सुस्त चाल में चलने वाला यह शहर अब बाजार की दौड़ में शामिल हो गया है. लिहाजा यह शहर अब हड़बड़ी में रहने लगा है. लोगों के पास अब घाट पर घूमने और बहरी अलंग के लिए समय ही नहीं है. बहरी अलंग के तहत लोग शाम को घाटों पर इकठ्ठा होते और नाव में सिल बट्टे पर भांग घोटते गंगा के उस पार जाते और फिर मस्ती का घूंट पी कर दिन छिपने के बाद घर वापस लौटते. बाजार ने उनके रहने सहन को भी प्रभावित किया है. अशोक पांडेय कहते हैं, "जब पश्चिम के लोग हमारी संस्कृति की तरफ आकर्षित हो रहे हैं तो हम उनकी नकल पर उतारू हैं. वे हमारी धोती पहन रहे हैं जबिक हमारे युवा उनकी जींस की तरफ आकर्षित हो रहे हैं."
राजनीति ने भी बनारस को तोड़ा है. काशी का अस्सी कस्बा अपनी बौद्धिक बहसों और बुद्दिजीवियों के अड़्डे के रूप में जाना जाता है. देश के नामीगिरामी बुद्दिजीवियों, लेखकों, साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों का यहां अवागमन रहता है. यहां की पप्पू व केदार की चाय की दुकान में आप को बनारस के तमाम बुद्दिजीवी मिल जाएंगे. प्रसिद्ध साहित्यकार धूमिल और नामवर सिंह का अस्सी अड़्डा रहा है. मधु दंडवते, राम मनोहर लोहिया, मधु लिमए और राज नारायण भी यहां आया करते थे. बहस मुहाबसों का अस्सी में ऐसा दौर हुआ करता था कि यहां की सड़के "संसद" के नाम से "कुख्यात" थीं. लेकिन राजनीति ने बुद्धिजीवियों को भी आपस में बांट दिया है और अब विचारधारा के आधार पर उनकी अलग अलग चाय की दुकाने हैं. प्रो. काशी नाथ सिंह कहते हैं, "अब यहां असहमित की गुंजाइश खत्म हो गई है. पहले लोगों के बीच संवाद हुआ करता था, लेकिन अब संवादहीनता की स्थिति बन गई है. लिहाजा अस्सी पर आने वाले लोग तितर बितर हो गए हैं."
सनातनी परंपरा वाले इस शहर में एक मॉल खुल गया है. काशी के रक्षक इसे बाजार का पहला हमला मान रहे हैं. लेकिन जल्दी ही यहां कई और माल खुलने वाले हैं. हालांकि बनारस अभी बाजार का उतना शिकार नहीं हुआ है जितना दूसरे शहर. हालांकि बाजार की चमक दमक से देश दुनिया के सभी शहर प्रभावित हो रहे हैं. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि वह शहर जहां पश्चिम के लोग उपभोक्तावाद और बाजार की चकाचौंध से भाग कर शांति की तलाश में आया करते है, वह शहर अब बाजार की चकाचौंध की तरफ आकर्षित हो रहा है. बनारस के बुद्धिजीवी चिंतित हैं कहीं बाजार की आंधी में इस शहर की परंपरा व संस्कृति तहस नहस न हो जाए. संस्कृति व परंपराएं इतनी आसानी से तहस नहीं होती और वह भी बनारस की, जिसकी जड़े बहुत गहरी हैं. लेकिन एक बात तो साफ है नई पीढ़ी बनारसीपन से मुक्त होने के लिए छटपटा रही है.

3 comments:

Monika (Manya) said...

्बहुत उम्दा लिखा है.. लगा बनारस घूम आई.. बनारस की संस्कृति से भी परिचय हुआ.. उसकी अपनी विशेष मती, फ़क्कड़्पन को जानना अच्छा लगा.. साथ ही बदल्ते परिवेश.. खो रही संस्कृति के बारे में जान कर दुख भी हुआ.. बाजारीकरण और पश्चिमीकरण यही सच रह गया है हमारी देश की सांस्कृतिक धरोहरों का...पैसा उगाहने के साधन हो चुके हैं सब.. और विदेश जाने के मोह से कहीं की भी युवा पीढी अछूती नहीं... भूल जाईये गंगा जल की पवित्रता. मिनरल वाटर से शुद्ध हमें कुछ नहीं दिखता...

Unknown said...

bhai sahab ye haal kewal varansi ka hi nahi hai kanpur, ilahabad, kannuj, ghazipur sahit sabhi jagah ka yahi haal hai. or dur kyo jaate hai aap noida me hai yanhi ki parampra or sanskriti ko dekh lijiye ekdam samapt ho chuki hai.
lekin ek such ye bhi hai ki jitna julm varansi jaisi pawitra nagari ke sath hua hai utna kisi ke sath nahi hua. such me aaj ki varansi wo to nahi jo kitabo or mahan writero ke lekh me dikhti hai.
kam se kam mujhe to kabhi nahi lagi, jabki main to varansi ko bahut karib se jaanta hu. tabhi to hairat hoti hai un longo par jo bina jaane kah dete hai ki VARANASI ke log bahut chalu hote hai, turant kam lga dete hai. darasal such to ye hai ki unhe varansi ke bare me kuch malum hi nahi hai.

Anonymous said...

akhbaar ki bhasha lagi.....par aapne banaras khoob ghumaya....banaras gaya hun...par wahan ki malls me nahi gaya tha...ghoom kar maza aagaya...